` आस्था का अनूठा केंद्र है कोलकाता का दक्षिणेश्वर काली मंदिर

आस्था का अनूठा केंद्र है कोलकाता का दक्षिणेश्वर काली मंदिर

Dakshineshwar Kali Temple of Kolkata is the unique center of faith share via Whatsapp

नेहा गौड,दिल्लीः यूं तो पूरा भारत ही श्रद्धा और आस्था का मुख्य केंद्र रहा है मगर पश्चिम बंगाल का दक्षिणेश्वर काली मंदिर अपने आप में आस्था का एक अनूठा केंद्र है। माँ काली के दर्शन मात्र से ही यहाँ चित्त को असीम शांति मिलती है।पश्चिम बंगाल के कोलकाता शहर में हुगली नदी के तट पर स्थित माँ काली का दक्षिणेश्वर मंदिर अपने आप में एक अदभुत स्थल है जहाँ श्रद्धा और आस्था की गंगा दिन-रात बहती है और इसी गंगा में डुबकियां लगाने पहुँचते हैं विश्व भर से श्रद्धालु। कहा जाता है कि यह रामकृष्ण परमहंस की तपोभूमि है। इसी मंदिर में विराजमान माँ काली ने उन्हें रामकृष्ण परमहंस बना दिया। काली की साधना के बल पर वे भक्ति के चरमोत्कर्ष तक पहुंचे और विश्व भर में उनकी पहचान बनी।नरेंद्र को भी स्वामी विवेकानंद बनाने का श्रेय भी इसी माता को जाता है। यहां आकर नरेंद्र ने माँ काली के दर्शन किये और उनकी भक्ति में ऐसे रमे कि स्वामी विवेकानंद बन गए एवं पूरे विश्व में प्रसिद्ध हुए। दक्षिणेश्वर मंदिर की ही शक्ति है कि उन्होंने अमेरिका जाकर भारतीय संस्कृति का परचम लहरा दिया। उनके आख्यान को आज भी लोग भूल नहीं पाए हैं।
कैसे हुआ मंदिर का निर्माण?
बात 1847 की है जब भारत में अंग्रेजों की हुकूमत थी। उसी समय पश्चिम बंगाल की एक अमीर विधवा रासमणि ने हुगली नदी के तट पर माँ काली के इस मंदिर का निर्माण कराया। दरअसल पहले पश्चिम बंगाल से लोग तीर्थयात्रा के लिए वाराणसी जाया करते थे। रासमणि उस समय अपनी उम्र के चौथे प्रहर पर थीं, इसलिए उनके मन में भी तीर्थयात्रा की इच्छा हुई तो उन्होंने वाराणसी से तीर्थयात्रा प्रारम्भ करने का निश्चय किया।उस समय अमीर लोग नाव द्वारा कोलकाता से वाराणसी जाते थे क्योंकि कोलकाता और वाराणसी के बीच रेल-सेवा शुरू नहीं हुई थी। रासमणि ने भी नाव से जाने का फैसला किया। बताया जाता है कि रासमणि के साथ पूरा काफिला तीर्थयात्रा के लिए निकलने को तैयार था, लेकिन यात्रा से पहले एक ऐसा वाकया हुआ कि रासमणि को अपनी तीर्थयात्रा छोडऩी पड़ी।
कहा जाता है कि तीर्थयात्रा पर जाने से पहले रात को जब रासमणि अपने शयन-कक्ष में सो रहीं थीं तो उनके स्वप्न में माँ काली प्रकट हुईं और कहा कि वाराणसी जाने की कोई आवश्यकता नहीं। आप कोलकाता में ही गंगा नदी के किनारे मेरी प्रतिमा स्थापित कीजिए और मंदिर बनवाइए। इस मंदिर में मैं स्वयं विराजमान रहूंगी और भक्तों की मनोकामनाएं पूरी करुँगी। सुबह उठकर रासमणि ने वाराणसी जाने का कार्यक्रम रद्द कर दिया और गंगा के किनारे माँ काली की मूर्ति स्थापित करने के लिए जगह की तलाश शुरू कर दी। जल्दी ही जगह खरीद ली गई और माँ काली की भव्य मूर्ति स्थापित की गई। 25 एकड़ जमीन पर मंदिर का निर्माण कार्य प्रारम्भ हुआ और आठ वर्षों में मंदिर बनकर तैयार हो गया। जान बाजार की महारानी रासमणि स्वयं भी माता की अनन्य भक्त थीं। मंदिर जब बनकर तैयार हुआ तो इसकी छटा देखते ही बन रही थी। सन 1855 में ही मंदिर बना। मंदिर बनने के बाद पुजारी की तलाश शुरू हुई लेकिन कोई भी पुजारी इस मंदिर में पूजा करवाने को तैयार नहीं हुए क्योंकि उनका मानना था रासमणि उच्च कुल से नहीं थीं। निम्न कुल से होने कारण कोई भी पुजारी पूजा-पाठ करवाने को तैयार नहीं हुए। चूँकि बंगाल में उस समय जाति-पाति की प्रथा पूरी तरह खत्म नहीं हुई थी। बड़ी विकट परिस्थिति थी। आखिरकार रामकृष्ण नामक एक पुजारी ने अपनी स्वीकृति दे दी और पूजा पाठ करवाने लगे।

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Source: INDIA NEWS CENTRE

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