` दांव नया पर रणनीति पुरानी
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दांव नया पर रणनीति पुरानी

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इंडिया न्यूज़ सेंटर, लखनऊ । उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव की राजनीति अत्यंत रोचक मोड़ पर आ पहुंची है। भारतीय जनता पार्टी ने इलाहाबाद में हुई राष्ट्रीय परिषद की बैठक के समय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की बड़ी रैली करके अपने मिशन 2017 का आगाज कर दिया था। उसके बाद तो सभी राजनीतिक दल अपने अभियान में जुट गए। समाजवादी पार्टी की सरकार ने टेलीविजन और अखबारों में विज्ञापन अभियान चला रखा है, तो भाजपा अध्यक्ष अमित शाह पूरे प्रदेश में रैलियां करने में जुट गए हैं। कांग्रेस ने भी लखनऊ और वाराणसी में रोड शो के बाद अब खाट सभाओं का आयोजन करना शुरू कर दिया है, तो वहीं बहुजन समाज पार्टी ने सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय रैलियों के जरिये अपनी ताल ठोक दी है। बसपा ने शुरुआत में रैलियों के लिए जिन स्थानों को चुना, वे उसकी राजनीति के स्ट्रॉन्ग होल्ड के रूप में जाने जाते हैं। इनमें से दो जगह इलाहाबाद और सहारनपुर में नरेंद्र मोदी की रैली पहले ही हो चुकी है, इसलिए बसपा ने उनकी रैली से बड़ी रैली करने की योजना बनाई। इलाहाबाद में तो वह इसमें कामयाब भी रही। सहारनपुर की रैली के लिए भी वह इसी रणनीति के साथ सक्रिय है। दरअसल, नरेंद्र मोदी की रैली से बड़ी रैली करके और फिर उसका प्रचार करके बसपा एक साथ कई संदेश देना चाहती है। एक तो वह यह बताना चाहती है कि मुख्य मुकाबला भारतीय जनता पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के बीच है, जिसमें बसपा अपनी मुख्य प्रतिद्वंद्वी से बीस है। दूसरे, वह यह भी दिखाना चाहती है कि समाजवादी पार्टी इस लड़ाई में कहीं नहीं है। इसके साथ ही बसपा यह दावा भी कर रही है कि वह अन्य दलों की तरह दूसरे क्षेत्रों व राज्यों के लोग इकट्ठे नहीं करेगी। बसपा का इरादा आस-पास के जिलों से अपने मतदाताओं और समर्थकों को इकट्ठा करना है। शुरू से ही बसपा का यह तरीका रहा हैै कि वह अपने मतदाताओं को एकत्र करती है और फिर उन्हें अपने काडर में तब्दील करती है। कई स्तरों पर उसके वोटर, सपोर्टर और काडर में बहुत ज्यादा फर्क नहीं रह जाता। बसपा की रणनीति में सामाजिक समीकरण हमेशा से मुख्य भूमिका निभाते रहे हैं। दलित हमेशा से उसका मुख्य आधार रहे हैं, लेकिन इसके साथ ही अन्य जातियों और समुदायों को जोड़कर वह आगे बढ़ने की कोशिश करती है। सर्वजन का नारा भी इसीलिए दिया जा रहा है। इन रैलियों में दूसरी जातियों को लाने के अलावा मुस्लिम समुदाय को भी बड़ी संख्या में जोड़ने की कोशिश की जा रही है। दलित-मुस्लिम गठजोड़ उसकी रणनीति का बहुत महत्वपूर्ण हिस्सा है। इस बार बसपा का भविष्य बहुत हद तक इस गठजोड़ में उसकी कामयाबी से ही तय होगा। इसी वजह से रैलियों के लिए ऐसे स्थानों को चुना गया है, जहां दलित और मुस्लिम आबादी बड़ी संख्या में है। पार्टी ने इसके प्रयास दो-तीन साल पहले ही शुरू कर दिए थे। जिस तरह पिछली बार बसपा ने अपनी सोशल इंजीनियरिंग में ब्राह्मण-दलित गठजोड़ की केमेस्ट्री आधारतल तक फैलाने के लिए भाईचारा समितियां बनाकर शुरुआत की थी, उसी तरह 2017 के विधानसभा चुनाव के लिहाज से दलित-मुस्लिम गठजोड़ को मजबूत करने और उसकी चेतना आधारतल पर फैलाने के लिए उसने स्थानीय व क्षेत्रीय स्तर पर दलित-मुस्लिम नेताओं की कोर टीम बनाने का काम काफी पहले से शुरू कर दिया था। बसपा के कार्यकर्ता काफी समय से मुस्लिम बस्तियों में जाकर लोगों में यह धारणा बनाने की कोशिश कर रहे हैं कि सपा और भाजपा आपस में मिले हुए हैं। खासकर मुजफ्फरनगर दंगों के बाद उस क्षेत्र में इस तरह के प्रचार का काम बड़े पैमाने पर किया गया। साथ ही मायावती के सत्ता में आने पर दंगे नहीं होंगे, ऐसे आश्वासन भी दिए जा रहे हैं। यह भी कहा जा रहा है कि बसपा अल्पसंख्यक समुदाय के गरीबों को आरक्षण देने के लिए लड़ेगी। कई स्तरों पर बसपा पूरे मुस्लिम समुदाय के वोट पाने के लिए सक्रिय दिखाई देती है, तो कई स्तरों पर वह मुस्लिम समुदाय के पिछड़े समूहों, पसमांदा मुसलमानों आदि पर खास ध्यान दे रही है। अंसारी, गद्दी, ततवा, फकीर, हलालखोर, आदि सामाजिक समूहों की बस्तियों में बसपा की गतिविधियां बढ़ती जा रही हैं। इसके अलावा गरीब मुसलमान शब्द का भी वह काफी इस्तेमाल कर रही है। इन जातियों से अलग दूसरे गरीब वर्गों तक पहुंचने के लिए भी यह उसे जरूरी लगता है। मुसलमान मतदाताओं के साथ कुछ पिछड़ी जातियों को जोड़ने की बसपा की यह रणनीति नई नहीं है, बल्कि पार्टी संस्थापक कांशीराम के जमाने से ही चली आ रही है। दलित-मुस्लिम गठजोड़ को मजबूत करने के लिए मायावती की दूसरी रणनीति है- आगामी विधानसभा चुनाव में मुसलमानों को अधिक टिकट देना। बसपा इस चुनाव में 100 से ज्यादा मुस्लिम उम्मीदवार मैदान में उतारने जा रही है। खासकर उन क्षेत्रों में, जहां मुसलमानों की आबादी काफी है। पार्टी का मानना है कि इस रणनीति से इन निर्वाचन क्षेत्रों में दलित व मुस्लिम गठजोड़ तो मजबूत होगा ही, इसके असर से अन्य क्षेत्रों में भी मुस्लिम मतदाता बसपा की ओर आएंगे। मायावती अपने दलित आधार मतों से मुस्लिम मतों को स्टेपनी वोट के रूप में जोड़ने की रणनीति पर तो काम कर ही रही हैं, साथ ही सर्वजन के नारे को फैलाकर अन्य समुदायों, जैसे अति पिछड़ों, सवर्ण ब्राह्मणों और ठाकुर मतों को भी स्टेपनी के रूप में जोड़ने की रणनीति पर चल रही हैं। बसपा का आधार मत तो लगातार उसके पक्ष में संगठित रहा है। लेकिन उसकी जीत की कुंजी इस बात में है कि वह मुस्लिम, अति पिछड़ों और बाकी जातियों के मतों को स्टेपनी मत के रूप में अपने आधार मत से कितना जोड़ पाती है।

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