इंडिया न्यूज सेंटर, नई दिल्ली: 2-3 दिसंबर 1984 की दरम्यानी रात को यूनियन कार्बाइड की फर्टिलाइजर फैक्ट्री से जहरीली गैस का रिसाव हुआ और पूरे शहर में यह जहरीली गैस बादल की तरह छा गई। आधी रात को अपने घरों में सोए हुए बहुत सारे लोग इसका शिकार हो गए। जिन लोगों की जानें बचीं उनके फेफड़े कमजोर पड़ गए और आंखें खराब हो गईं। इनमें से कई की तो सुधबुध चली गई और वो मनोरोगी हो गए। साल 1998 में पीडि़तों के संगठनों ने बेहतर सुविधा की मांग के लिए सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया। साल 2012 में कोर्ट ने राज्य और केंद्र सरकारों को सभी मरीजों की मेडिकल हिस्ट्री कंप्यूटराइज करने, उन्हें मेडिकल कार्ड जारी करने, इलाज की सुविधा बढ़ाने और उनकी कंडीशन पर रिसर्च शुरू करने का आदेश दिया। 32 साल से उनका इलाज चल रहा है। फिर भी उन्हें शारीरिक रूप से अस्थाई तौर पर अक्षम (टेंपररी डिजेबल) की श्रेणी में डाला जा रहा है। पीडि़तों के अधिकारों की लड़ाई लड़ रहे एनडी जयप्रकाश ने कहा कि तब से चार साल बीत गए लेकिन कुछ खास प्रगति नहीं है। उन्होंने कहा, हादसे के 32 साल बाद भी इलाज के दौर से गुजर रहे ज्यादातर गैस पीडि़तों को टेंपररी इंजरी से पीडि़त की श्रेणी में रखा जा रहा है ताकि उन्हें परमानेंट इंजरी का मुआवजा नहीं देना पड़े। दुनिया की सबसे भयावह त्रासदी के लिए सुप्रीम कोर्ट से 1989 में महज 705 करोड़ रुपये का मुआवजा तय हुआ। सडक़ से लेकर अदालत तक की 21 साल की लंबी लड़ाई ने साल 2010 में सरकार को मुआवजे की राशि बढ़ाकर 7,728 करोड़ रुपये करने के लिए क्यूरेटिव पिटिशन डालने पर मजबूर किया। इसका महत्वपूर्ण कारण यह था कि पहले के समझौते में पीडि़तों की संख्या बहुत कम बताई गई लेकिन, दुर्भाग्य की बात है कि पिछले छह सालों में याचिका पर एक बार भी सुनवाई नहीं हुई। केंद्र सरकार की भी इसमें कोई दिलचस्पी नहीं जान पड़ती है और कोर्ट से लगातार तारीख पर तारीख मिलती जा रही है।