एक्सक्लूसिव,
यूपी की राजधानी लखनऊ से ग्राउंड स्टोरी
अशफाक अहमद खाॅ,लखनऊः लखनऊ का जिक्र होते ही जेहन मे नवाबी शानों शौकत के साथ ही विभिन्न जिलों व राज्यों के युवाओ का संगम सा नजर आने लगता है । पढाई , नौकरी ,और व्यवसायिक कार्यों के लिए युवाओ का कभी ना थकने वाले इसी जोश चलते राजधानी लखनऊ आज युवाश्रम के मामले में देश के अन्य विकसित शहरों के सामने ताल ठोक रहा है । ऐतिहासिक धनाढता के साथ ही सांस्कृतिक धरोहरों को करीने से संजोए लखनऊ का एक पहलु जहाॅ संपन्नता , आधुनिकता और विलासिता है तो वहीे दूसरा पहलु गरीबी , अशिक्षा व बेरोजगारी भी है । राजधानी के इस पहलु के और भीतर जाए तो कुछ ऐसी तसवीरें भी नुमाया होती है जो यकीनन लखनऊ की खूबसूरती पर मानों झाईयों जैसी दिखती है । जिसे देखने का वक्त ना तो सरकारो को है और ना ही सभ्य समाज को । जिस मेहनत के बूते हम लखनऊ को विकसित करने में लगे हैं विकास की इसी इमारत में राजधानी के मासूमाों का बचपन और उनकी मासूमियत दबी पडी है । बालश्रम लखनऊ की तसवीर का वह धब्बा है जिसे धोने की जरूरत ना तो सरकार ने समझी और ना ही बालश्रम से जुडी संस्थाओ ने । हालात यह है कि लखनऊ का बचपन अपने मासूम चेहरों पर जिम्मेदारी के मुखौटों के साथ चैराहों पर अमीरों के गाडियों के शीशे साफ कर रहें हैं तो कहीं चाय के होटलों व ढाबों की जूठी प्लेटों में अपना मुकदद्र तलाश कर रहीे है । गरीबी , अशिक्षा व बेरोजगारी ने इन मासूमो को बचपन में ही जवान कर दिया । बालश्रम के प्रति सरकारों के ढुलमुल रवैए व मैजूदा श्रम कानूनों का पालन कराने मे अब तक फिसडी रहे प्राशासन के जिम्मेदार लोग ऐसे विलासपूर्ण माहौल मे जीवन जी रहे है जहाॅ मानवता और मानवीय संवेदनाए लगभग समाप्त हो चुकी हैं । ऐसे मे मासूमों से छीना गया बचपन उन्हें पुन; लौटाया जाएगा एेसी उम्मीद फिलहाल नही दिख रही । बाल मजदूर होटल ढाबे से लेकर नामी प्रतिष्ठानों पर काम करते देखा जा सकता है । खासकर इन दिनों बस स्टैण्डों पर दर्जनो बच्चे पानी की बोतलें और चाय की केतली के साथ सहज ही दिखाई दे जाते है मगर ध्र्तराष्ट्रय चशमा पहनें श्रम विभाग के जिम्मेदारों को ऐसे नजारे दिखाई नही पडते । सरकारी तंत्र ही छीन रहा बचपन - बालश्रम पर अंकुश लगाने के लिए पंच सितारा होटलों में बडे बडे सेमिनार कर सरकारी पैसे को आग लगाने वाले सरकारी तंत्र के ही स्वास्थ्य व श्क्षिा विभाग जैसे धडे बालश्रम को बढावा दे रहे हैै। चन्द पैसो के लिए इन विभाग के कुछ भ्रष्ट लोग फर्जी मार्कशीट के जरिए नाबालिग को बालिग बना बालश्रमिको को मजदूरी करनेे का कानूनी अधिकार दे देते है । जाहिर है ऐसी त्टि पूर्ण व्यवस्था के चलते बाल मजदूरों की संख्या तेजी से बढ रही है । बालश्रम कानून में बदलाव की जरूरत - राजधानी मे आज भी हजारों बच्चे बालमजदूर की जिंदगी जीने को मजबूर हैं । बाल मजदूरी की समस्या के मूल समाधान के लिए हमें गहनता से सोचना होगा । जरूरत है 14 वर्ष से कम उम्र के बाल मजदूरों की पहचान करना , आखिर वे कौन से मापदण्ड है जिससे हम बाल मजदूर की पहचान करते है । सवाल यह भी है कि क्या यह मापदण्ड अंतरराष्ट्रीय मानकों वर भी खरे उतरते है । प्रश्न यह भी कि क्या जब बच्चा 14 साल का हो जाए तो उसकी देखभाल छोड देनी चाहिए , गरीबी मे अपना गुजर बसर कर रहे एैसे मासूमों को 14 साल बाद भी परवरिश की जरूरत होती है । यदि 14 वर्ष की आयु के बाद सरकार अपना सहयोग बन्द कर दे तो मुमकिन है कि एक बार फिर वह बच्चा मजदूरी के चंगुल में फॅस जाएगा । और समस्या जस की तस बनी रहेगी । कई लोंगों का मानना है कि बाल श्रमिकों की पहचान की न्युनतम आयु 14 से बढा कर 18 कर दी जानी चाहिए । साथ ही सभी सरकारी मदद जैसे मासिक वजीफा , चिकित्सा , व खान पान आदि का सहयोग तब तक जारी रखना चाहिए जब तक वह 18 साल का ना हो जाए ।