अशफाक खां की रिपोर्ट
बहराइचः कोई अन्नदाता तो कोई धरती का भगवान कहलाता है, कालाकोट कानून के रक्षक का प्रतीक तो कलमकार चौथा स्तंभ बन जाता है। मगर खाकी ऐसी उपमा से क्यों वंचित है। क्यों समाज का बड़ा तबका आज भी उसको खलनायक के तौर पर देखता है। पुलिस का जिक्र आते ही मस्तिष्क में एक ऐसा कैरेक्टर घूमने लगता है जिसमें वेदना - संवेदना के तत्व ना के बराबर दिखते। सामाजिक शिष्टाचार में वह कंजूसी करता है। उसके स्वभाव की बुनियाद ही क्रोध पर टिकी होती है।
आखिर क्यों पुलिस सुधार व जन जागरूकता के तमाम प्रयासों के बाद भी पुलिस अपनी नकारात्मक छवि को तोड़ने में असफल रही है। क्यों वह समाज, परिवार व रिश्तेदारों की कसौटी पर खरी नहीं उतर पा रही है। पुलिस सुधार को लेकर अब गंभीर चिंतन करने की जरूरत है। एक ऐसा पेशा जो समाज के अंतिम व्यक्ति तक सीधे तौर पर जुड़ा हो , जिसके कंधे पर मजलूमों की हिफाजत और अपराध मुक्त समाज के निर्माण का जिम्मा हो। वह अपनों व समाज के अपनत्व से वंचित क्यों है। सरकारों की उदासीनता व सिस्टम के नकारे पन ने पुलिस को अनैतिकता के ऐसे कीचड़ में धकेल दिया है जहां से वह चाह कर भी बेदाग नहीं निकल सकता।
पुलिसिया सिस्टम अपने ही लोगों का हर दिन हर क्षण उत्पीड़न करती हैं। कभी जांच के नाम पर, कभी चार्ज के नाम पर तो कभी खर्च के नाम पर। इसको बारीकी से समझने की जरूरत है। मसलन एक विवेचक को हाई कोर्ट में काउंटर एफिडेविट देने में प्रीति एफिडेविट लगभग बारह सौ रुपए का खर्च मोटे तौर पर लगता है। एक थाना या कोतवाली से प्रतिमाह औसतन 10 काउंटर एफिडेविट न्यायालय में दाखिल किए जाते है। आम तौर पर इस खर्च का ठीकरा विवेचक अथवा थाना प्रभारी के ही सिर पर फूटता है। थानों पर संचालित होने वाले थाना दिवस व पीस मीटिंग जैसे आयोजनों में कुर्सी चाय पानी आदि का खर्च भी प्रभारी की जेब से ही होता है ।
महंगाई के इस दौर में जहां पानी की बोतल भी ₹20 में मिलती हो वहां पर थानों पर लाए गए मुलजिम को एक वक्त के भोजन का खर्च ₹25 निर्धारित है। मुलजिमों के भोजन पर ही औसतन प्रतिमाह पाँच से छ हज़ार का खर्च आता है। जिसे धरातल पर थाना प्रभारी ही वहन करता है। थानों पर इस तरह के खर्चों की लंबी फेहरिस्त है और एक मोटी रकम हर महीने पुलिसकर्मियों के जेब से खर्च होता है। इन खर्चों को लेकर विभागीय नियम इतने जटिल हैं की पुलिस ना चाहते हुए भी रिश्वतखोरी के अनैतिक मार्ग पर चलने को विवश हो जाती है। आम जनता में पुलिस की छवि बिगड़ने की कि यह बड़ी वजह कहीं जा सकती है।
पुलिस जिस मानसिक तनाव के बीच अपनी ड्यूटी करती है उसका असर उसके कार्य व्यवहार पर सीधे तौर पर पड़ता है। बढ़ते राजनीतिक दखल व अपने सगे संबंधियों से कि लंबी समय तक दूरी उसकी क्षमता को प्रभावित करते हैं।
पुलिस की छवि बिगाड़ने में राजनीति ने अहम भूमिका अदा की है। सत्तारूढ़ दल ने अपने कार्यकर्ताओं से ज्यादा पुलिस को अपना राजनीतिक एजेंडा फैलाने के लिए इस्तेमाल किया है। राजनीति के प्रलोभन व डर ने पुलिस के नैतिक बल को काफी हद तक कमजोर किया है। अहम ओहदों की जिम्मेदारी योग्यता के बजाय किसी खास विचारधारा अथवा जाति को पैमाना बना कर किया जाता रहा है। पुलिस समाज का ही एक हिस्सा है।
समाज के हर अच्छे बुरे बदलाव से वह अछूता नहीं रह सकता। जाहिर है समाज में सांप्रदायिक माहौल का आंशिक ही सही पर असर पुलिस पर भी पड़ता है। पुलिस सर्वे की प्रतिष्ठित राष्ट्रीय एजेंसी सीएसडीएस की रिपोर्ट से यह पता चलता है कि पुलिस का एक तबका सांप्रदायिक मानसिकता की जद में आ गया है। ऐसी विषम परिस्थितियों के बीच बड़ा सवाल यह भी है कि क्या एक पुलिसकर्मी एक अच्छा पिता ,अच्छा पति ,अच्छा बेटा अथवा अच्छा रिश्तेदार बन पाया है अथवा नहीं ?
इन रिश्तो को संजोने के लिए उसे खासा वक्त देना पड़ता है जोकि पुलिस कर्मियों के पास ना के बराबर रहता है। हर पुलिसकर्मी का परिवार उसके अकेलेपन से समझौता करके वियोग को नियति मानकर सब्र कर लेता हैं। जो सब्र नहीं कर पाते उनके रिश्तो में दरार पड़ जाता है।
रिश्तो में आए दरार कितने गहरे होते हैं, पुलिसकर्मियों को सेवानिवृत्ति के बाद ही साफ तौर पर पता चलता है। तमाम मानसिक अड़चनों से लड़ते हुए पुलिस आज भी अपनी ड्यूटी कर रही है। इस उम्मीद में कि शायद पुलिस की इस अदृश्य बेबसी पर परिवार व समाज की निगाह पड़ जाए और उसे खलनायक की धारणा से मुक्ति मिल जाये ।