` हिंदुत्व छोड़ने का परिणाम... एक रसूख़दार राजनीतिक परिवार के हाथ से गया चुनाव निशान
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हिंदुत्व छोड़ने का परिणाम... एक रसूख़दार राजनीतिक परिवार के हाथ से गया चुनाव निशान

Consequences of leaving Hindutva... Election symbol lost from the hands of an influential political family share via Whatsapp

Consequences of leaving Hindutva... Election symbol lost from the hands of an influential political family

 

चुनाव आयोग ने शिवसेना का चुनाव निशान धनुष बाण अब एकनाथ 


शिवसेना नाम और चिन्ह की लडाई अब सुप्रीम कोर्ट पहंची


नेशनल न्यूज डेस्कः  कहते है वक्त कभी किसी का नही रहा है। कभी महाराष्ट में बाल ठाकरे की तूती बोलती थी। बाल ठाकरे की पहचान एक हिंदु नेता के रुप में थी। महाराष्ट ही नही देश के बाकी हिस्सों के लोग भी उनकी इज्जत करते थे। महाराष्ट में लोग बाल ठाकरे की पुजा करते थे। लेकिन आज ठाकरे परिवार के हाथ से शिवसेना निकल चुकी है । चुनाव आयोग ने शिवसेना का चुनाव निशान धनुष बाण अब एकनाथ शिंदे को सौंप दिया है क्योंकि संविधान और चुनाव आयोग के हिसाब से पार्टी का सिंबल उसी के पास रहता है जिसके पास ज्यादा विधायक और सांसद रहते हैं ।

 

यहां बताते चले की  साल 2012 में बाल ठाकरे की मृत्यु हुई थी और सिर्फ़ 10 साल के अंदर ही उद्धव ठाकरे ने पूरी पार्टी को बर्बाद कर दिया जिसमें अहम योगदान दिया उनके बेटे आदित्य ठाकरे ने जो करीब 30 साल की उम्र में ही यानी युवावस्था में ही कैबिनेट मंत्री बन गए थे । आदित्य ठाकरे ने दो तरीके से शिवसेना को बर्बाद किया । दोनों आपको बताएंगे ।

 

-दरअसल उद्धव ठाकरे बीमार रहते हैं और उनके प्रतिनिधि के रूप में आदित्य ठाकरे ही पहले सांसदों और विधायकों से मुलाकात करते थे । लेकिन आदित्य ठाकरे से भी मिलना आसान नहीं था क्योंकि आदित्य ठाकरे के एक पर्सनल सेक्रेटरी थे जिनसे अप्वाइंटमेंट कई महीनों के बाद ही मिल पाता था ।

 

-दूसरा ये कि एकनाथ शिंदे के समर्थक विधायक सांसद आदित्य ठाकरे पर दिशा सान्याल और सुशांत सिंह राजपूत की डेथ मिस्ट्री में शामिल होने का आरोप लगा रहे हैं । जब आदित्य ठाकरे बिहार में तेजस्वी से मिलने गए तो ये शक और पुख्ता हो गया क्योंकि सुशांत सिंह राजपूत के मौत के मामले की जांच बिहार पुलिस भी कर रही है।


शिवसेना के घर को आग लगी घर के चिराग से 

आदित्य ठाकरे ने ही सांसद और विधायकों को शिवसेना से दूर करने का काम किया और डेथ मिस्ट्री में फंसकर उद्धव ठाकरे की कमजोर नस भी आदित्य ठाकरे ही बन गए जिसका परिणाम अब ठाकरे परिवार को भुगतना पड़ रहा है

 

शिवसेना मोदी पर तानाशाही के जरिए चुनाव निशान छीनने का आरोप लगा रही है । लेकिन सच्चाई ये है कि साल 1991 से ही शिवसेना और चुनाव आयोग का विवाद चल रहा है । दरअसल चुनाव आयोग में हर पार्टी को अपना संविधान सौंपना पड़ता है लेकिन शिवसेना ने 1991 में जो संविधान सौंपा था उसको बहुत पहले ही चुनाव आयोग अलोकतांत्रिक कह चुका है । 

 

साल 2018 में शिवसेना ने चुपके चुपके संविधान में बदलाव कर दिया और चुनाव आयोग को कोई सूचना नहीं दी और अब तो टेक्निकल ग्राउंड पर उनका पार्टी सिंबल भी एकनाथ शिंदे की पार्टी के हाथ में चला गया यानी शिवसेना और बाल ठाकरे की विरासत अब एकनाथ शिंदे के हाथ में जा चुकी है 

 

-शरद पवार और सुप्रिया सुले भी उद्धव ठाकरे को अब यही समझा रहे हैं कि अब सुप्रीम कोर्ट में जाने से भी पार्टी सिंबल नहीं मिलने वाला है और अब उनको चुनाव आयोग द्वारा दिए गए चुनाव चिह्न मशाल से ही संतोष करना चाहिए ।

 

-इस मौके पर कंगना रनावत को कैसे भूल सकते हैं ? जिन्होंने उद्धव को शाप दिया था कि आज मेरा घर टूट रहा है कल तेरा घर टूटेगा । और वाकई में अब शिवसेना भवन भी दांव पर है कहीं उस पर भी एकनाथ शिंदे दावा ना ठोंक दें ।

 

शिवसेना नाम और चिन्ह की लडाई अब सुप्रीम कोर्ट पहंची

 

शिवसेना 'नाम' और 'चुनाव चिह्न' की लड़ाई अब सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच गई है। चुनाव आयोग के फैसले के खिलाफ उद्धव ठाकरे गुट ने सोमवार को सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर दी है। उद्धव गुट के वकील ने चुनाव आयोग के फैसले को चुनौती देते हुए इस मामले पर सुनवाई की मांग की है। हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने वकील को इस मामले को कल मेंशन करने के लिए कहा है। 


उद्धव ठाकरे से पहले ही एकनाथ शिंदे गुट ने किया सुप्रीम कोर्ट का रुख

 

हालांकि, उद्धव ठाकरे से पहले ही एकनाथ शिंदे गुट सुप्रीम कोर्ट का रुख कर चुका है। शिंदे गुट ने इस मामले में सुप्रीम कोर्ट में कैविएट याचिका दायर की है। इस याचिका में कहा गया है कि चुनाव आयोग के फैसले को चुनौती देने के लिए उद्धव गुट सुप्रीम कोर्ट के समक्ष गुहार लगा सकता है। ऐसे में इस मामले में कोई भी फैसला सुनाने से पहले शीर्ष अदालत महाराष्ट्र सरकार की दलील को भी सुने। 

 

चुनाव आयोग के फैसले के बाद उद्धव से पिता की बनाई पार्टी एक झटके में छिन गई। आयोग के इस फैसले के बाद उद्धव के पास सिर्फ तीन विकल्प ही बचे थे। इसमें पहले विकल्प के जरिए उन्होंने कोशिश भी शुरू कर दी है। मतलब सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटा चुके हैं। आइये जानते हैं उद्धव ठाकरे के विकल्पों के बारे में। साथ ही यह समझने की कोशिश करते हैं कि क्या उद्धव वापस शिवसेना को हासिल कर सकेंगे या नहीं?  

 उद्धव गुट के पास पार्टी बचाने के क्या विकल्प?

 

1. न्यायालय की चौखट पर दस्तक देना: ये काम आज उद्धव गुट ने कर दिया। चुनाव आयोग के फैसले के खिलाफ उद्धव गुट ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर दी। अब ये देखना होगा कि कोर्ट इस मामले में क्या फैसला सुनाता है? कोर्ट इस मामले में दोनों गुटों के अलावा महाराष्ट्र सरकार, महाराष्ट्र राजभवन, केंद्र सरकार और चुनाव आयोग से जवाब मांग सकता है। इसके बाद ही तय होगा कि शिवसेना पर शिंदे गुट का कब्जा बरकरार रहेगा या उद्धव ठाकरे की वापसी होगी। यहां से भी अगर उद्धव गुट को झटका लगेगा तो उनके पास सिर्फ एक ही विकल्प रह जाएगा। 

 

 2. उद्धव के पास दूसरा विकल्प शिंदे गुट से समझौता करना: इसके लिए वह भावनात्मक रूख अख्तियार कर सकते हैं। पार्टी के नेताओं को वापस अपने पाले में करने के लिए पुरानी दुहाई दे सकते हैं। हालांकि, इसकी गुंजाइश भी कम ही दिखती है। अब शिंदे गुट नहीं चाहेगा कि शिवसेना की कमान वापस ठाकरे परिवार के पास जाए। 

 

 3. जयललिता फॉर्मूले पर काम करना: इस रास्ते पर भी उद्धव ने चलना शुरू कर दिया। इसके जरिए भी उद्धव शिवसेना पर फिर से दावा जता सकते हैं। दरअसल, 1987 में एमजी रामचंद्रन के निधन के बाद उनकी पार्टी एआईएडीएमके दो धड़ो में टूट गई। पार्टी के ज्यादातर विधायक एमजीआर की पत्नी जानकी रामचंद्रन के साथ थे। जानकी राज्य की मुख्यमंत्री बनीं। लेकिन, जयललिता की संगठन पर पकड़ थी। 

जयललिता ने 1989 में राज्य में हुए चुनावों में जानकी गुट के मुकाबले बेहतर प्रदर्शन किया। जानकी गुट को नौ फीसदी वोट से संतोष करना पड़ा। वहीं, जयललिता गुट को 22 फीसदी से ज्यादा वोट मिले। पार्टी संगठन पर पकड़ और अपनी क्षमताओं के दम पर जयललिता ने अंतत: एआईएडीमके पर नियंत्रण दोबारा हासिल कर लिया था। 

 

अब देखना यह है  कि अगर कोर्ट की लड़ाई भी ठाकरे हार जाते हैं और शिंदे गुट से बात नहीं बनती है तो उद्धव नए सिरे से राजनीति में उतर सकते हैं। उद्धव ने अभी से कहना भी शुरू कर दिया है कि हम मशाल लेकर उनका मुकाबला करेंगे।  ऐसे में उनके सामने नगर निकाय चुनाव सबसे अहम सीढ़ी होगी। वह जनता के बीच जाकर भावनात्मक तौर पर प्रचार कर सकते हैं। पार्टी की लड़ाई और पुरानी बातों को याद दिलाने की कोशिश कर सकते हैं। अगर इस चुनाव में उद्धव गुट को फायदा हुआ तो वह शिवसेना के नाम की लड़ाई के लिए फिर से कोशिश कर सकते हैं। हां, अगर चुनाव के नतीजे उद्धव गुट के पक्ष में नहीं हुए तो जरूर उन्हें और उनके बेटे के राजनीतिक करियर को बड़ा झटका लग सकता है।

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Source: INDIA NEWS CENTRE

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