ललिता निझावन
शिक्षाविद् एवं सामाजिक कार्यकर्ता द्वारा बजट से पहले विशलेषण
नई दिल्लीः जैसे जैसे बजट की तारीख करीब आ रही है, लोगों में उत्सुकता भी बढ़ती जा रही है। नोटबंदी के बाद सरकार क्या मध्य वर्ग को कोई राहत देगी? कैशलेस अर्थव्यवस्था के लिए और क्या कदम उठाए जाएंगे? जीएसटी का क्या होगा? सकल घरेलू उत्पाद में कटौती की खबरें आ रही हैं, भारतीय अर्थव्यवस्था अपनी गति कायम रख पाएगी या नहीं? बजट को लेकर बड़े-बड़े बुद्धिजीवी, अर्थशास्त्री, व्यापार संगठन, चिंतक और नेता दिमाग खपा रहे हैं। उधर सरकार भी दिन रात मेहनत में लगी है कि वो कुछ ऐसा करे कि जनता भी नाराज न हो और खजाना भी भरा रहे। लेकिन अफसोस कि लोग बजट में देश की आधी आबादी यानी महिलाओं की भूमिका के बारे में पर्याप्त गंभीरता से नहीं सोच रहे जबकि महिलाएं अपने परिवार और समाज ही नहीं, देश की तरक्की में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही हैं और उनमें इससे भी कहीं आगे जाने की अपार संभावना है।वर्ल्ड इकॉनॉमिक फोरम हर वर्ष ग्लोबल जेंडर गैप इंडेक्स (विश्व लैंगिक असमानता सूचकांक) तैयार करता है। वर्ष 2016 के सूचकांक के मुताबिक 144 देशों में भारत 87वें स्थान पर जबकि पड़ोसी बांग्लादेश 72वें स्थान पर है। ये सूचकांक किसी देश में चार क्षेत्रों - स्वास्थ्य, शिक्षा, अर्थव्यवस्था और राजनीति में महिलाओं के स्थान के आधार पर तैयार किया जाता है। इसके पहले तीन पायदानों पर आइसलैंड, फिनलैंड और नॉर्वे हैं, लेकिन आश्चर्यजनक तो यह है कि अविकसित समझे जाने वाले अफ्रीकी देश रवांडा (5), बुरूंडी (12), नामीबिया (14) आदि भी भारत से आगे हैं। जाहिर है बड़े पैमाने पर देश की अर्थव्यव्स्था भले ही रंगीन नजर आती हो, जमीनी स्तर पर हर क्षेत्र में महिलाओं बहुत पिछड़ी हुई हैं और उनके लिए काफी काम किया जाना बाकी है।
यूनाइटेड नेशंस डिवेलपमेंट प्रोग्राम (संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम) भी 188 देशों का लैंगिक असमानता सूचकांक तैयार करता है। इसके वर्ष 2015 के सूचकांक में भारत का स्थान 130वां है। यहां भी श्रीलंका (73) और मालदीव (104) जैसे पड़ोसी मुल्क भारत से आगे हैं। भारत में पुरूषों के मुकाबले महिलाएं काफी पिछड़ी हैं। वैश्विक संस्थाओं के आंकड़े ही नहीं, घरेलू आंकड़े भी यही बताते हैं। जहां बांग्लादेश के श्रमबल में महिलाओं का प्रतिशत 57.4 है वहीं भारत में ये सिर्फ 27 है। इंटरनेशनल मॉनेटरी फंड और वर्ल्ड बैंक के वर्ष 2015 के आंकड़ों के हिसाब से भारत की प्रतिव्यक्ति आय क्रमशः 1604 अमेरिकी डॉलर (186 देशों की सूची में 141वां स्थान) और 1582 अमेरिकी डॉलर है (184 देशों की सूची में 139वां स्थान)। इसमें महिलाआ और पुरूष दोनों शामिल हैं। जाहिर है महिलाओं की औसत आय, विशेष कर पिछड़े इलाकों में तो और भी कम होगी। भारत में एक लड़की औसत 3.6 वर्ष स्कूल जाती है वहीं एक लड़का 7.2 वर्ष। वर्ष 2011 की जनगणना के मुताबिक भारत की 29.5 प्रतिशत आबादी (36.3 करोड़) गरीबी रेखा से नीचे बसर कर रही थी और करीब 73 प्रतिशत जनसंख्या गांवों में रहती थी। भारत में स्त्री-पुरूष अनुपात 930ः1000 था। यानी एक हजार पुरूषों पर महिलाओं की तादाद सिर्फ 930 थी। अगर हम इन सभी आंकड़ों को देश में महिलाओं की स्थिति के परिप्रेक्ष्य में देखें जो तस्वीर उभरती है वो बहुत निराशाजनक है - भारत में पुरूषों के मुकाबले महिलाओं की तादाद काफी कम है, लड़कियां बुनियादी शिक्षा भी नहीं हासिल कर पातीं, रोजगार के मामले में भी महिलाएं पुरूषों से पिछड़ी हैं और उनकी आमदनी भी काफी कम है। करोड़ों महिलाएं गरीबी रेखा के नीचे रहती हैं। अगर इस तस्वीर में भारत के पुरूषवादी समाज की सोच और औरतों के साथ होने वाली हिंसा को भी जोड़ दिया जाए तो समझा जा सकता है कि असल में महिलाओं की स्थिति क्या है और जो हालत है, उसकी वजह क्या है। भारत में कहने को तो बड़ा मध्य आय वर्ग भी है लेकिन इस वर्ग के निचले पायदानों में जो लोग हैं वो वैश्विक मानकों के हिसाब से अब भी गरीबी रेखा के नीचे हैं क्योंकि भारत में गरीबी रेखा के मानक ही इतने लचर हैं। भारत का समता आधारित प्रगतिशील संविधान महिलाओं को सभी अधिकार देता है और जरूरी कानूनी ढांचा भी उपलब्ध करवाता है, लेकिन जमीनी हकीकत तो यही बताती है कि महिलाओं के लिए सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक स्तर पर बहुत कुछ किया जाना अभी बाकी है।
केंद्रीय बजट देश के आय और व्यय का हिसाब ही नहीं बताता, विभिन्न क्षेत्रों में सरकार की प्राथमिकताओं को भी बयान करता है और उनके अनुसार धन का प्रावधान भी करता है। देश में महिलाओं का विकास हो, इसके लिए जरूरी है कि बजट के प्रावधान महिलाओं के प्रति संवेदनशील हों और उनके बहुमुखी विकास में योगदान करें। भारत में महिलाओं से संबंधित सभी नीतिगत मामलों पर सरकार को सलाह देने के लिए जनवरी 1992 में राष्ट्रीय महिला आयोग का गठन किया गया। तब नरसिम्हा राव प्रधानमंत्री थे। डॉ मनमोहन सिंह ने वर्ष 2005 में महिलाओं के प्रति संवेदनशील बजट की अवधारणा पर पहली बार घोषित रूप से काम शुरू किया। एक पंक्ति में महिलाओं के प्रति संवेदनशील बजट को कुछ इस प्रकार परिभाषित किया जा सकता है - यह योजना, कार्यक्रम और बजट तैयार करने का वह तरीका है जो लैंगिक समानता बढ़ाता है और उनके अधिकारों को सुनिश्चित करता है। अब तक करीब 60 सरकारी मंत्रालय/ विभाग और अनेक राज्य सरकारें इसके लिए लैंगिक बजट प्रकोष्ठ बना चुके हैं, लेकिन आश्चर्य ये है कि इस पूरी कवायद के बावजूद कुल केंद्रीय बजट में महिलाओं के लिए आवंटन कमोबेश 5.5 प्रतिशत ही रहा है। देश में महिलाओं के विकास के लिए केंद्रीय महिला एवं बाल विकास मंत्रालय मुख्य एजेंसी के तौर पर काम करता है। इसका बजट आवंटन भी आवश्यकता और अपेक्षा के अनुसार नहीं बढ़ा है। भारत की 73 फीसदी आबादी गांवों में रहती है। ग्रामीण महिलाओं की आवश्यकताएं शहरी महिलाओं से अलग हैं। गांवों में साक्षरता दर भी शहरों से कम है और रूढ़िवादिता शहरों से अधिक। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ योजना आरंभ की जिसका उद्देश्य है - लैंगिक भेदभाव को रोकने के लिए जागरूकता पैदा करना, बेटियों की भ्रूण हत्या रोकना, उनका अस्तित्व बचाना और शिक्षित करना। इस कार्यक्रम को महिला और बाल विकास मंत्रालय, स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय, मानव संसाधन विकास मंत्रालय और जिला कलेक्टरों/ कमिश्नरों की मदद से चलाया जा रहा है। सारी सरकारी योजनाओं के बावजूद भारत में लड़कियों के प्रति समाज का दुराग्रह किसी से छुपा नहीं है। पहले तो उन्हें पैदा ही नहीं होने दिया जाता। अगर वो दुनिया में आ भी जाती हैं तो उन्हें बेरहमी से त्याग दिया जाता है। अनेक परोपकारी संस्थाएं ऐसी लड़कियों के लिए अनाथालय, आश्रम आदि चला रही हैं। इन संस्थाओं को बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ योजना के अंतर्गत ला कर इनकी सहायता की जानी चाहिए। सरकार ने एक बेटी वाले परिवारों की बेटियों के स्वास्थ्य, शिक्षा आदि के लिए अनेक योजनाएं चलाई हैं। केंद्रीय बजट में ये सुविधाएं उन परिवारों को भी देनी चाहिए जिनकी दो या उस से अधिक बेटियां हैं। आमतौर से देखा जाता है कि लोग लड़कों को महंगे निजी स्कूलों में पढ़ाते हैं, लेकिन लड़कियों की शिक्षा के लिए पर्याप्त प्रयास नहीं करते। अच्छे स्कूलों में बेटियों की शिक्षा सुनिश्चित करने के लिए आर्थिक सहायता दी जानी चाहिए। ऐसी योजनाओं को भी ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ योजना में शामिल किया जाना चाहिए। प्रधानमंत्री की पहल पर आरंभ किए गए इस कार्यक्रम के उद्देश्य निःसंदेह प्रशंसनीय हैं, लेकिन अब वक्त आ गया है कि सामााजिक, जमीनी हकीकत के मद्दे नजर इसका दायरा व्यापक किया जाए। इसकी निष्पक्ष समीक्षा हो और हर स्तर पर जवाबदेही तय की जाए वरना ये भी पहले चलाई गई असंख्य योजनाओं की तरह सिर्फ लफ्फाजी बन कर रह जाएगी। देश में महिलाओं के लिए और विशेषकर गर्भवती महिलाओं के लिए पौष्टिक भोजन सुनिश्चित करने की भी कई योजनाएं हैं। 31 दिसंबर को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गर्भवती महिलाओं के इलाज और टीकाकरण के लिए मातृत्व स्वास्थ्य योजना के तहत 6,000 रूपए हर महीने देने की घोषणा की है। नौ महीने की गर्भावस्था को देखते हुए ये राशि कम है, इसे बढ़ाया जाना चाहिए। माता पिता बेटियों के विवाह के लिए उम्र भर पैसा जमा करते हैं। कुछ राज्य सरकारें बेटियों के विवाह के लिए एकमुश्त राशि और मंगलसूत्र आदि भी देते हैं, लेकिन केंद्रीय बजट में कभी इस ओर ध्यान नहीं दिया गया। केंद्र सरकार भले ही मंगलसूत्र और एकमुश्त सहायता न दे पर शिक्षा कोष की तरह ‘विवाह कोष’ की व्यवस्था तो कर ही सकती है जिसमें धन जमा करवाने वाले माता-पिता को आयकर में छूट दी जाए। विवाह कोष से पैसा सिफ तब निकालने की अनुमति हो जब लड़की कानूनी रूप से विवाह योग्य हो जाए। ये लंबी अवधि का निवेश होगा और इस पर ब्याज भी ज्यादा दिया जाना चाहिए। शहरों की तुलना में ग्रामीण क्षेत्रों में लड़कियों की शिक्षा-दीक्षा बहुत कम है। इसकी एक वजह लोगों का दकियानुसी रवैया है तो दूसरी बड़ी वजह स्थानीय शिक्षण संस्थाओं में सुविधाओं की कमी। गांवों के एक तिहाई स्कूलों में सिर्फ एक ही अध्यापक है, मिड डे मील अपर्याप्त है और गुणवत्ता संदिग्ध, बच्चों के पास किताबें और कपड़े नहीं हैं, अनेक स्कूलों में तो पक्के कमरे और ब्लैकबोर्ड तक नहीं हैं। सबसे दुखद बात तो ये है कि अनेक अध्यापकों का अपने काम के प्रति कोई समर्पण नहीं है। आश्चर्य नहीं इन स्कूलों के पांचवीं कक्षा के आधे से अधिक बच्चे पढ़ने-लिखने में अक्षम हैं। आज आवश्यक है कि पंचायत स्तर से लेकर केंद्रीय सचिव के स्तर तक इस विषय में जिम्मेदारी तय की जाए। सरकारी निरीक्षकों के समानांतर एक गैरसरकारी निगरानी तंत्र तैयार किया जाए और इसके लिए बजट में प्रावधान किया जाए। महिलाओं और बच्चियों की दूसरी बड़ी समस्या है - सुरक्षा। ज्यादातर लोग मानते हैं कि वो तभी तक सुरक्षित हैं जब तक उनके साथ कोई दुर्घटना या अनहोनी न घटे। चाहे गांव हों या शहर, लोगों का सुरक्षा व्यवस्था में बहुत कम विश्वास है। देश में प्रति 761 व्यक्ति पर सिर्फ एक पुलिसकर्मी है यानी एक लाख लोगों पर 131 पुलिसकर्मी। अंतरराष्ट्रीय मानकों के अनुसार प्रत्येक एक लाख व्यक्ति पर 230 पुलिस वाले होने चाहिए। देश में आम आदमी के लिए भले ही पुलिसबल की कमी हो पर प्रत्येक वीआईपी पर तीन पुलिस कर्मी हैं। अर्थात भारत के 14,842 वीआईपी के लिए 47,557 पुलिसकर्मी हैं। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों के मुताबिक 2015 में महिलाओं के खिलाफ 3,27,394 और बच्चों के खिलाफ 94,172 अपराध हुए। बच्चों में लड़कियों की तादाद स्पष्ट नहीं है। अपराध के ये वो आंकड़े हैं जिनकी एफआईआर दर्ज कराई गई है। असल में ये आंकड़ा कितना बड़ा होगा, इसका सहज ही अंदाज लगाया जा सकता है। आज जब बड़े-बड़े शहरों में महिलओं में सुरक्षा बोध नहीं है, ऐसे में ग्रामीण महिलाओं की स्थिति समझी जा सकती है। एक तो सामाजिक रूढ़िवादिता, ऊपर से असुरक्षा, दोनों ने मिलकर गांवोें में बच्चियों और महिलाओं का जीवन दूभर कर दिया है। भारत में 12,809 पुलिस स्टेेशन हैं। कुल पुलिसबल में महिलाओं की संख्या मात्र 5 प्रतिशत है। स्पष्ट है देश में पुलिस बल और महिला पुलिस कर्मियों की संख्या बढ़ाने की ही नहीं, पुरूष पुलिसवालों को महिलाओं के प्रति संवेदनशील बनाने की भी आवश्कता है। महिलाओं के प्रति अपराध जिस गति से बढ़े हैं, उस गति से मामलों का निपटान नहीं बढ़ा है। पुलिस जैसे तैसे मामला दर्ज भी करती है तो वो अदालत में टिक नहीं पाता या इतने लंबे समय तक लटका रहता है कि न्याय की हत्या ही हो जाती है। अब समय आ गया है कि महिलाओं को सुरक्षा के साथ समय पर न्याय दिलवाने के लिए व्यापक योजना बने और उसके लिए संसाधन एकत्र किए जाएं। सरकार को बजट में इस विषय पर विशेष तौर से ध्यान देना होगा। भारत में मुश्किल से तीन प्रतिशत लोग संगठित क्षेत्र में काम करते हैं। संगठित क्षेत्र में कायदे-कानूनों का पालन आसान होता है, लेकिन असंगठित क्षेत्र में स्थिति बहुत कठिन है। असंगठित क्षेत्र में महिलाओं के लिए सुरक्षा एक महत्वपूर्ण मुद्दा है। उन्हें सिर्फ शारीरिक और भावात्मक सुरक्षा ही नहीं, समय से वेतन मिलने और रोजगार के सुरक्षित रहने का आश्वासन भी चाहिए। अंधाधुंध निजीकरण और ‘हायर एंड फायर’ नीति ने हालात बहुत कठिन कर दिए हैं। हालांकि मोदी सरकार ने दुर्घटना बीमा और पेंशन योजना चलाई हैं, लेकिन मौजूदा हालात और अगले दस साल के वित्तीय अनुमानों को देखते हुए इनकी राशि बढ़ाई जानी चाहिए। अभी तक ये योजनाएं स्वैच्छिक हैं। इन्हें प्रत्येक नागरिक तक पहुंचाने और अनिवार्य करने की आवश्यकता है। जरूरी है कि हर नियोक्ता को बाध्य किया जाए कि वो अपने कर्मचारियों को इन योजनाओं से जोड़े। असंगठित क्षेत्र में ऐसी महिलाओं के लिए पर्याप्त व्यवस्था नहीं है जिनके बच्चे छोटे हैं। यहां महिलाओं को क्रेश या अन्य सहायता देने वाले नियोक्ताओं को रियायत दी जानी चाहिए। मौजूदा और पूर्व सरकारों ने परित्यक्ता, विधवा और बुजुर्ग महिलाओं के लिए कई योजनाएं चलाई हैं। लेकिन महंगाई के स्तर को देखते हुए इनके तहत किया जाने वाला भुगतान सिरे से नाकाफी हैं। कुछ राज्यों में तो ऐसी महिलाओं को प्रतिमाह सिर्फ 200 रूपए सहायता दी जाती है। कुछ राज्यों ने दिल बड़ा करते हुए बुजुर्ग पंेशन 2,000 प्रतिमाह तक बढ़ा दी है। लेकिन सवाल यही है कि बुढ़ापे में जब व्यक्ति को दवा और उपचार की सबसे ज्यादा जरूरत होती है, तब सिर्फ 2,000 रूपए किस काम आ सकते हैं। ऐसी महिलाओं के लिए सहायता राशि तत्काल बढ़ाई जानी चाहिए। महानगरों में पारिवारिक कलह, न्यूक्लियर परिवारों और छोटे आकार के घरों के कारण बहुत से बुजुर्ग ओल्ड एज होम्स में पनाह ले रहे हैं। यह चलन धीरे-धीरे छोटे शहरों में भी बढ़ रहा है। सरकार को ऐसी संस्थाओं का सर्वेक्षण करवाना चाहिए और उनके रहवासियों के सम्मानजनक जीवन के लिए बजट में उचित कदम उठाने चाहिए। ओल्ड एज होम्स के मानकीकरण और नियमन के लिए उचित दिशा-निर्देश भी बनने चाहिए। निजी क्षेत्र के ओल्ड एज होम बुजुर्गों से अच्छा खासा पैसा वसूलते हैं, उधर सरकारी वृद्धगृहों में बुनियादी सुविधाएं भी नहीं हैं जिनमें ज्यादातर गरीब बुजुर्ग आश्रय लेते हैं। सरकार को इनकी बेहतरी के लिए तुरंत कदम उठाने होंगे। अभी तक आरक्षण सिर्फ जातिगत या धर्म के आधार पर ही दिया जाता है। अब सरकारी और निजी क्षेत्र में महिलाओं के लिए भी आरक्षण की व्यवस्था होनी चाहिए। शहरी स्थानीय निकायों और पंचायतों में पहले ही आरक्षण की व्यवस्था है, अब इसे विधानसभाओं और संसद में लागू होना चाहिए। सरकार ने अनेक योजनाओं को आधार कार्ड और जनाधार खातों से जोड़ कर, प्रस्तावित धनराशी को संबंधित व्यक्ति तक पहुंचाने के लिए अनेक प्रयास किए हैं। अब वक्त आ गया है कि सभी योजनाओं को आधार कार्ड से जोड़ा जाए। समाज में हर व्यक्ति की आवश्यकता अलग-अलग होती है। अब सरकार को योजनाओं को अधिक व्यक्तिपरक बनाने पर विचार आरंभ कर देना चाहिए ताकि लाभार्थी को उसकी आवश्यकतानुसार सहायता मिल सके। अब तक योजनाएं तो बहुत बनी हैं, लेकिन क्रियान्वयन और जवाबदेही के मामले में अधिकांश शून्य रही हैं। लोग रेडियो और टीवी पर इनके विज्ञापन तो देखते हैं । लेकिन इनका लाभ कैसे उठाया जाए, संबंधित एजेंसी तक कैसे पहुंचा जाए, यह स्पष्ट नहीं होता। अशिक्षित और घरों तक सीमित रहने वाली महिलाओं के लिए तो किसी योजना का लाभ उठाना लगभग असंभव ही होता है। योजना और लाभार्थी के बीच के इस अंतर को समाप्त करना बड़ी चुनौती है। इसके लिए जमीनी स्तर पर जागरूकता अभियान चलाने के साथ ही लोगों तक लाभ पहुंचाने के लिए ढांचा तैयार करने की भी बहुत आवश्यकता है। बजट में योजनाओं के ऐलान के साथ ही उन्हें लागू करने के तौर-तरीकों पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए। विशेषकर जवाबदेही तय करने के बारे में।सरकार अपनी योजना की निगरानी के लिए एक एक समेकित निगरानी व्यवस्था विकसित कर सकती है जिसमें स्थानीय प्रशासन, गैरसरकारी संगठन और निजी क्षेत्र मिलकर काम करें। सरकार एक विस्तृत आई टी ग्रिड विकसित कर एक फीडबैक व्यवस्था भी बना सकती है। निजी क्षेत्र की अनेक कंपनियों में यह पहले ही प्रचलन में है जहां जनता से बातचीत या लेनदेन करने वाले हर व्यक्ति के बारे में ग्राहक या उपभोक्ता से फीडबैक मांगा जाता है। ये व्यवस्था सरकारी बाबुओं की निरंकुशता पर तो लगाम लगाएगी ही प्रशासन को भी ये पता रहेगा कि कौन सा व्यक्ति कितना सक्षम है। इससे संबंधित विभागों की उत्पादकता तो बढ़ेगी ही, संसाधनों का अपव्यय भी रूकेगा।